Charitrahin (Upanyas) by Sharatchandra एक बार शरत् की अन्य पुस्तकों के साथ उनकी चरित्रहीन की पाण्डुलिपि, जो लगभग पांच सौ पृष्ठों की थी, जल गई। इससे हताश वे अवश्य ही बहुत हुए परन्तु निराश नहीं। अपने असाधारण परिश्रम से उसे पुन: लिखने से समर्थ हुए। प्रस्तुत रचना उनकी बड़ी लगन और साधना से निर्मित वही कलाकृति है। शरत् बाबू ने अपनी इस अमर कृति के सम्बन्ध में अपने काव्य-मर्मज्ञ मित्र प्रमथ बाबू को लिखा था, ‘‘केवल नाम और प्रारम्भ को देखकर ही चरित्रहीन मत समझ बैठना। मैं नीतिशास्त्र का सच्चा विद्यार्थी हूं। नीतिशास्त्र समझता हूं। कुछ भी हो, राय देना...लेकिन राय देते समय मेरे गम्भीर उद्देश्य को याद रखना। मैं जो उलटा-सीधा कलम की नोक पर आया, नहीं लिखता। आरम्भ में ही उद्देश्य लेकर चलता हूं। वह घटना चक्र में बदला नहीं जाता।’’ अपने दूसरे पत्र में शरत् बाबू प्रस्तुत पुस्तक के सम्बन्ध में लिखते हैं- ‘‘शायद पाण्डुलिपि पढ़कर वे (प्रमथ) कुछ डर गये हैं। उन्होंने सावित्री को नौकरानी के रूप में ही देखा है। यदि आँख होती और कहानी के चरित्र कहां किस तरह शेष होते हैं, किस कोयले की खान से कितना अमूल्य हीरा निकल सकता है, समझते तो इतनी आसानी से उसे छोड़ना न चाहते। अन्त में हो सकता है कि एक दिन पश्चात्ताप करें कि हाथ में आने पर भी कैसा रत्न उन्होंने त्याग दिया ! किन्तु वे लोग स्वयं ही कह रहे हैं, ‘चरित्रहीन का अन्तिम अंश रवि बाबू से भी बहुत अच्छा हुआ है। (शैली और चरित्र-चित्रण में) पर उन्हें डर है कि अन्तिम अंश को कहीं मैं बिगाड़ न दूँ। उन्होंने इस बात को नहीं सोचा, जो व्यक्ति जान-बूझकर मैस की एक नौकरानी को प्रारम्भ में ही खींचकर लोगों के सामने उपस्थित करने की हिम्मत करता है वह अपनी क्षमताओं को समझकर ही ऐसा करता है। यदि इतना भी मैं न जानूँगा तो झूठ ही तुम लोगों की गुरुआई करता रहा।’’ बंगला के सफल लेखक श्री रमेन्द्र बनर्जी अब कई वर्ष से हिन्दी में लिख रहे हैं। आशा है उनका प्रस्तुत अनुवाद पाठकों को विशेष रुचिकर होगा।