Bhagwadgita (Hindi) by Dr. Sarvapalli Radhakrishnan इसका ज्ञान सारी मानवीय महत्त्वाकांक्षाओं को सिद्ध करने वाला है। मुझे गीता से बड़ी सांत्वना मिलती है। जब निराश होता हूं, तब गीता की शरण लेता हूं और इसमें मुझे कोई - न - कोई श्लोक ऐसा मिल ही जाता है, जिससे मैं विपत्तियों में भी मुस्कराने लगता हूं।’ - महात्मा गांधी ‘यह पुस्तक उस सामान्य पाठक को ध्यान में रखकर तैयार की गई है, जो अपने आध्यात्मिक परिवेश का विस्तार करना चाहता है। ... किसी भी अनुवाद को अपना उद्देश्य पूरा करने के लिए इतना स्पष्ट होना चाहिए, जितना कि उसकी विषयवस्तु उसे स्पष्ट होने दे सके। अनुवाद सुपाठ्य तो होना चाहिए, परन्तु वह उथला न हो, वह आधुनिक होना चाहिए, किन्तु सहृदयता से शून्य नहीं, परन्तु गीता के किसी भी अनुवाद में वह प्रभाव और चारुता नहीं आ सकती, जो मूल में है। मैंने भी मूल की आत्मा को सामने लाने का भरसक प्रयत्न किया है।’ - डाॅ. राधाकृष्णन् शिक्षा और राजनीति के क्षेत्रों में भारत के लिए अद्वितीय उपलब्धियां हासिल करने वाले डाॅ. राधाकृष्णन् ने भगवद्गीता को बहुत ही सरल भाषा - शैली में पेश किया है। डाॅ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन् की विश्व स्तर पर पहचान जहां एक महान विचारक और साहित्यकार के रूप में है, वहीं वह एक कुशल वक्ता और प्रशासक भी थे। 5 सितम्बर, 1888 को तिरुतानी (तमिलनाडु) में जन्मे डाॅ. राधाकृष्णन् की प्राथमिक शिक्षा तिरुपति के स्कूल में हुई। मद्रास विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में एम.ए. किया। उसी दौरान संस्कृत और हिन्दी भाषा के साथ - साथ वेदों तथा उपनिषदों का भी अध्ययन किया। शुरू में वह मैसूर विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफ़ेसर रहे। उसके बाद दो और सत्रों में भी वह इसी पद पर रहे। 1931 में वह आन्ध्र विश्वविद्याालय के उप कुलपति बने। इसी वर्ष उन्हें ‘सर’ की उपाधि प्रदान की गई। उन्होंने कई बार यूनेस्को में भारतीय प्रतिनिधि मंडल का नेतृत्व किया। 1948 में उन्हें विश्वविद्यालय शिक्षा समिति का अध्यक्ष बनाया गया। 1952 में यूनेस्को के अध्यक्ष का पद संभाला। उन्होंने 1949 - 52 के बीच सोवियत रूस में कई महत्वपूर्ण पद संभाले। विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों द्वारा उन्हें डाॅक्टरेट की उपाधियां प्रदान की गईं। डाॅ. राधाकृष्णन् ने भारत के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के पद - भार भी संभाले। इनका जन्म - दिवस 5 सितम्बर भारत में शिक्षक - दिवस के रूप में मनाया जाता है। 1954 में उन्हें भारत - रत्न का अलंकरण मिला। उनका निधन 17 अप्रैल, 1975 को हुआ।