सत्य के प्रयोग- महात्मा गाँधी जीवनी/आत्मकथा
गांधी की ‘आत्मकथा’ जो अंग्रेजी में प्रसिद्ध हुई है; उसके असली स्वरूप में तथा उसमें जो ‘दक्षिण अफ्रीका का सत्याग्रह का इतिहास’ है, इन दोनों के कुल पुष्ठ करीब एक हजार होते हैं। इन दोनों पुस्तकों के कथावस्तु को पहली बार संक्षिप्त करके इकट्ठा करके प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। क्योंकि गांधीजी की शैली ही संक्षिप्त में कहने की है इसलिए यह कार्य सरल नहीं है। एक बात और भी है कि वे सदा जितना उदेश्य पूर्ण महत्व का हो उतना ही कहते हैं। अतः उन्होंने जो भी कुछ लिखा है, उसमें काट-छाट करने से पहले दो बार सोचना ही पड़ेगा।
आधुनिक पाठक गांधीजी की ‘आत्मकथा’ ‘संक्षिप्त मे माँगता है। उसकी इस माँग को मद्देनज़र रखते हुए तथा स्कूल-कालेजों के युवा-विद्यार्थियों के लिये यह संक्षिप्त आवृत्तियाँ तैयार की गयी है। असल ग्रन्थ का स्थान तो यह संक्षिप्त आवृत्ति कभी नहीं ले सकेगी; लेकिन ऐसी आशा रखना अवश्य अपेक्षित है कि यह संक्षेप पाठक में जिज्ञासा अवश्य उत्पन्न करेगा और बाद में अपनी अनुकूलता से जब फुरसत मिलेगी तब असली ग्रन्थ का अध्ययन करेगा।
इस संक्षेप में गाँधीजी के जीवन में घटी सभी घटनाओं का समावेश हो ऐसा प्रयास किया गया है, इसमें भी घटनाओ का कि जिसका आध्यात्मिक महत्व है इस काऱण उन्होंने पुस्तकें लिखी हैं। गाँधीजी के अपने ही शब्दों को चुस्ती से पकड़ रखे हैं। ऐसी भी कई जगह हैं कि जहां संक्षिप्त करते समय शब्दों को बदलने की जरूरत मालूम होती है वहां बदल भी दिये हैं; लेकिन यहाँ भी एक बात की सावधानी रखी गयी है कि उन्होंने जो अर्थ दर्शाये है उसके अर्थ में कोई परिवर्तन ना हो। संक्षिप्त करते समय महादेवभाई देसाई द्वारा तैयार किया गया ग्रन्थ माई अर्ली लाईफ’ विशेष उपयोगी हुआ था।
आत्मकथा लिखने का मेरा आशय नहीं है। मुझे तो आत्मकथा के बहाने सत्य के जो अनेक प्रयोग मैंने किये हैं, उसकी कथा लिखनी है। उसमें मेरा जीवन ओतप्रोत होने के कारण कथा एक जीवन ओतप्रोत होने के कारण कथा एक जीवन-वृत्तान्त जैसी बन जायेगी, यह सहीं है; लेकिन उसके हर पन्ने पर मेरे प्रयोग ही प्रकट हो तो मैं स्वयं इस कथा को निर्दोष मानूँगा। मैं ऐसा मानता हूँ कि मेरे सब प्रयोगों का पूरा लेखा जनता के सामने रहे, तो वह लाभदायक सिद्ध होगा अथवा यों समझिये कि मेरा मोह है। राजनीति के क्षेत्र में हुए प्रयोगों को तो अब हिन्दुस्तान जानता है, लेकिन मेरे आध्यात्मिक प्रयोगों को, जिन्हें मैं जान सकता हूँ, और जिनके कारण राजनीति के क्षेत्र में मेरी शक्ति भी जन्मी है, उन प्रयोगों का वर्णन करना मुझे अवश्य ही अच्छा लगेगा। अगर ये प्रयोग सचमुच आध्यात्मिक हैं तो इनमें गर्व करने की गुंजाइश ही नहीं। इनमें तो केवल नम्रता की ही वृद्धि होगी। ज्यों-ज्यों मैं अपने भूतकाल के जीवन पर दृष्टि डालता जाता हूँ, त्यों-त्यों अपनी अल्पता स्पष्ट ही देख सकता हूँ।
मुझे जो करना है, तीस वर्षों से मैं जिसकी आतुर-भाव से रट लगाये हुए हूँ वह तो आत्मदर्शन है,. ईश्वर का साक्षात्कार है, मोक्ष है। मेरे सारे काम इसी दृष्टि से होते हैं। मेरा सब लेखन भी इसी दृष्टि से होता है; और मेरा राजनीति के क्षेत्र में पड़ना भी इसी वस्तु के अधीन है। लेकिन ठेठ से ही मेरा यह मत रहा है कि जो एक के लिए शक्य है, वह सबके लिये भी शक्य है। इस कारण मेरे प्रयोग खानगी नहीं हुए-नहीं रहे। उन्हें सब देख सके, तो मुझे नहीं लगता कि उससे उनकी आध्यात्मिकता कम होगी। ऐसी कुछ चीजें अवश्य हैं कि जिन्हें आत्मा ही जानती है, जो आत्मा में ही समा जाती हैं परन्तु ऐसी वस्तु देना, यह मेरी शक्ति से परे की बात है। मेरे प्रयोगों में आध्यात्मिकता का मतलब है नैतिक, धर्म का अर्थ है नीति; आत्मा की दृष्टि से पाली गयी नीति ही धर्म है।
इसलिये जिन वस्तुओं का निर्णय बालक, नौजवान और बूढ़ें करते है और कर सकते है, इस कथा में उन्हीं वस्तुओं का समावेश होगा। अगर ऐसी कथा में मैं तटस्थ भाव से निरभिमान रहकर लिख सकूँ, तो उसमें से दूसरे प्रयोग करने वालों को कुछ सामग्री मिलेगी। इन प्रयोगों के बारे में मैं किसी भी प्रकार की सम्पूर्णता का दावा नहीं करता। जिस तरह वैज्ञानिक अपने प्रयोग अतिशय नियमपूर्वक, विचारपूर्वक और बारीकी से करता है, फिर भी उसमें उत्पन्न परिणामों को वह अन्तिम नहीं करता अथवा वे परिणाम सत्य ही हैं, इस बारे में मेरा भी वैसा ही दावा है मैंने खूब आत्मनिरीक्षण किया है; एक-एक भाव की जाँच की है, उसका पृथक्करण किया हैं। किन्तु उसमें से निकले हुए परिणाम सबके लिये अन्तिम ही है, वे सच हैं अथवा वे ही सच है ऐसा दावा मैं कभी करना नहीं चाहता। हाँ यह दावा मैं अवश्य करता हूँ कि मेरी दृष्टि से ये सच हैं और इस समय तो अन्तिम जैसे ही मालूम होते हैं। अगर न मालूम हो तो मुझे उनके सहारे कोई भी कार्य खड़ा नहीं करना चाहिये। लेकिन मैं तो पग-पग पर जिन-जिन वस्तुओं को देखता हूँ उनके त्याज्य और ग्राह्य-ऐसे दो भाग कर लेता हूँ, और जिन्हें ग्राह्य समझता हूँ, उनके अनुसार अपना आचरण बना लेता हूँ। और जब तक इस तरह बना हुआ आचरण मुझे, अर्थात् मेरी बुद्धि को और मेरी आत्मा को सन्तोष देता है , तब तक मुझे उसके शुभ परिणामों के बारे में अविचलित विश्वास रखना ही चाहिए।
मैं तो सिर्फ यह चाहता हूँ कि उनमें बतायें गये प्रयोगों को दृष्टान्तरूप मानकर सब अपने-अपने प्रयोग यथाशक्ति करें। मुझे विश्वास है कि इस संकुचित क्षेत्र में आत्मकथा के मेरे लेखों से बहुत कुछ मिल सकेगा; क्योंकि कहने योग्य एक भी बात मैं छिपाऊँगा नहीं। मुझे आशा है कि मैं अपने दोषों का खयाल पाठकों को पूरी तरह दे सकूँगा। मुझे सत्य के शास्त्रीय प्रयोगों का वर्णन करना हैं; मैं कितना भला हूँ, इसका वर्णन करने की मेरी तनिक भी इच्छा नहीं होती है। जिस गज से स्वयं मैं अपने को मापना चाहता हूँ जिसका उपयोग हम सबको अपने-अपने विषय में करना चाहिये, उसके अनुसार तो मैं अवश्य कहूँगा कि ‘उनसे’ तो अभी मैं दूर हूँ।
आश्रम साबरमती
26 नवम्बर, 1925
-मो. क. गांधी
बचपन और युवावस्था
ऐसा मालूम होता है कि उत्तम चन्द्र गांधी अथवा मेरे दादा ओता गांधी टेक वाले थे। राजनीति खटपट के कारण उन्हें पोरबन्दर छोड़ना पड़ा था और उन्होंने जूनागढ़ राज्य में आश्रम लिया था। उन्होंने नवाब साहब को बायें हाथ से सलाम किया। किसी ने इस प्रकट अविनय का कारण पूछा, तो जवाब मिला- ‘‘दाहिना हाथ तो पोरबन्दर को अर्पित हो चुका हैं।
ओता गांधी के एक के बाद दूसरा यों दो विवाह हुए थे। पहले विवाह से उनके चार लड़के थे और दूसरे से दो। इनमें पाँचवे करमचन्द्र अथवा कबा गाँधी और आखिरी तुलसीदास गांधी थे। दोनों भाइयों ने बारी-बारी से पोरबन्दर में दीवान का काम किया। कबा गाँधी मेरे पिता थे।
कबा गांधी के भी एक के बाद एक यों चार विवाह हुए थे। अन्तिम पत्नी पुतलीबाई से एक कन्या और तीन पुत्र थे। उनमें अन्तिम मैं हूँ।
पिता कुटुम्ब प्रेमी, सत्य, शूर, उदार किन्तु क्रोधी थे। राज्य के प्रति वे बहुत वफादार थे। एक बार प्रान्त के किसी साहब ने राजकोट के ठाकुर साहब का अपमान कर दिया था। पिताजी ने उसका विरोध किया। साहब नाराज हुए, कबा गाँधी से माफी माँगने के लिये कहा। उन्होंने माफी मांगने से इनकार किया। फलस्वरूप कुछ घण्टों के लिए उन्हें हवाताल में भी रहना पड़ा। इस पर भी जब वे डिगे नहीं तो, अन्त में साहब ने उन्हें छोड़ देने का हुक्म दिया।
पिताजी ने धन बटोरने का लाभ कभी नहीं किया। इस कारण हम भाइयों के लिये वे बहुत थोड़ी सम्पत्ति छोड़ गये थे।
पिताजी की शिक्षा केवल अनुभव की थी। आजकल जिसे हम गुजराती की पांचवीं किताब का ज्ञान करते हैं उतनी शिक्षा उन्हें मिली होगी। इतिहास-भूगोल का ज्ञान तो बिल्कुल ही न था। फिर भी उसका व्यवहारिक ज्ञान इतना उँचे दर्जे का था। कि बारीक-से-बारीक सवालो को सुलझाने में अथवा हज़ार आदमियों से काम लेने में भी उन्हें कठिनाई नहीं होती थी। धार्मिक शिक्षा नहीं के बराबर थी, पर मन्दिर में जाने से और कथा वगैरा सुनने से जो धर्मज्ञान असंख्य हिन्दुओं को सहज भाव से मिलता रहता है, वह उनमें था। आखिर के साल में एक विद्वान ब्राह्मण की सलाह से, जो परिवार के मित्र थे, उन्होंने गीता-पाठ शुरू किया था और रोज पूजा के समय वे थोड़े-बहुत श्लोक ऊँचे स्वर से पाठ किया करते थे।
मेरे मन पर यह छाप रही है कि माता- पिता साध्वी स्त्री थीं। वे बहुत श्रद्धालु थीं। बिना पूजा-पाठ के कभी भोजन न करतीं। हमेशा हवेली (वैष्णव मन्दिर) जातीं। जब से मैंने होश संभाला तब से मुझे याद नहीं पड़ता कि उन्होंने कभी चातुर्मास का व्रत तोड़ा हो। वे कठिन-से-कठिन व्रत शुरू करतीं और उन्हें निर्विघ्न पूरा करतीं। लिये हुए व्रतों को बीमार होने पर भी न छोड़ती। ऐसे एक समय की मुझे बात याद है कि जब उन्होंने चान्द्रायण का व्रत लिया था। व्रत के दिनों में बीमार पड़ीं, पर व्रत नहीं छोड़ा। चातुर्मास में एक बार खाना तो उनके लिये सामान्य बात थी। लगातार दो-तीन उपवास तो उनके लिये मामूली बात थी। एक चातुर्मास में उन्होंने यह व्रत लिया था कि सूर्यनारायण के दर्शन करके ही भोजन करेंगी। उस चौमासे में हम बालक बादलों के सामने देखा करते कि कब सूरज के दर्शन हों और कब माँ भोजन करें। यह तो सब जानते हैं कि चौमासे में अकसर सूर्य के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। मुझे ऐसे दिन की याद कि जब हम सूरज को देखते और कहते, ‘‘माँ-माँ सूरज दीखा;’’ और माँ उतावली होकर आतीं, इतनें में सूरज छिप जाता और माँ यह कहती हुई लौट जाती कि ‘‘कोई बात नहीं, आज भाग्य में भोजन नहीं है;’’
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