मुनव्वर राना की ज़िंदगी ने देखते ही देखते उम्र के साठवें ज़ीने पर पाँव रख दिये लेकिन उनकी इल्मी लियाक़त और अदबी सूझ-बूझ रायबरेली के शोएब विद्यालय के दर्जा पाँच के क्लास में बिछी टाट पट्टी पर ही बैठी रह गयी, उन्होंने ऐसा कुछ नहीं लिखा जिस पर उन्हें बेजा फ़ख्र हो, लेकिन हाँ! उन्होंने ऐसा भी कुछ नहीं किया कि उन्हें अपने किये पर शर्मिन्दगी महसूस हो। अदब तख़लीक़ करने का दावा उन्होंने कभी नहीं किया, क्योंकि उनकी कम इल्मी ने उनमें ऐसी किसी बीमारी को पनपने नहीं दिया जिसे गुरूर कहा जाता हो, उन्हें शेर कहने से ज़्यादा नस्र निगारी का शौक था, लेकिन वह इस खुद एतमादी से महरूम थे जिसे उर्फ़े आम में एहसासे बरतरी कहा जाता है।... लिहाज़ा इन संस्मरणात्मक लेखों के ज़रिये मुनव्वर राना अपने क़द्रदानों का शुक्रिया अदा करना अपना फ़र्ज़ समझते हैं।