Dukhiyari Ladki by Taslima Nasrin
‘‘नहीं, मैं कोई धर्म नहीं मानती। मैं तथाकथित ऊँचे तबकों को भी नहीं मानती। मेरा धर्म मानवता है। मैं न नारीवादी हूँ, न बौद्धिक ! समाज की नाइंसाफी, औरत मर्द में विसमता, पुरुष-शासित समाज में औरत को दूसरे दर्जे से भी बदतर नागरिक बनाए जाने से मेरा जी दुखता है। ‘‘ऐसे भी लोग हैं, जो यह मानते हैं कि हिन्दु लोग सभ्य हैं, पढ़े-लिखे सहनशील हैं, अपने धर्म की आलोचना सह लेते हैं, मुसलमान नहीं सह पाते, क्योंकि वे लोग मूरख और अनपढ़ हैं, असहनशील हैं। दुनिया में सभी धर्मों की आलोचना संभव है, सिर्फ इस्लाम धर्म की आलोचना असंभव है-जिन लोगों ने भी यह नियम बनाया है, उन लोगों ने और कुछ भले किया हो, मुसलमानों का भला नहीं कर रहे हैं।
मुस्लिम औरतों की मुक्ति की राह में भी लोग काँटे बिछा रहे हैं। जिस अँधेरे की तरफ उन्हें रोशनी डालनी चाहिए, वहाँ तक रोशनी पहुँचने ही नहीं देते। अगर कोई और उस पर रोशनी डाले, तो वे ही लोग, साम-दाम-दंड-भेद से उसे बुझा देते हैं। ‘‘मैंने मुल्ला-मौलवियों के पांखड पर वार किया था, उनकी पोल-पट्टी खोली थी। बाबरी मस्जिद के ध्वंस की प्रतिक्रिया में बंलादेश में जो दंगे भड़के, उस पर मैंने ‘लज्जा’ लिखी, उसे ही मेरा गुनाह मान लिया गया। राजनीतिक सत्ता और धार्मिक कट्टरता से बगावत के जुर्म में, मुझ पर फतवा लटका दिया गया, मेरी फाँसी की माँग की गई, यहाँ तक की मुझे देश-निकाला दे दिया।’’
‘‘बंग्लादेश से प्रकाशित, तुम्हारा ‘क’ आत्मकथा का तीसरा खंड ज़ब्त कर लिया गया। उसमें ऐसा क्या है, जो लोग भड़क गए ?’’
तसलीमाँ हँस पड़ी, ‘‘उसमें मैंने उन साहित्यकारों, पत्रकारों, अफसरों और समाजसेवकों के बखिए उधेड़े हैं, जिन्होंने मुझ पर घिरे संकट का फायदा उठाते हुए, मुझसे सेक्स-संबंध स्थापित किए।’’
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