Desh Ke Hit Mein by Narendra Kohli
हिन्दी में व्यंग्य उपन्यासों की स्थिति हमेशा से चिन्ताजनक रही है। यहाँ बमुश्किल पचास व्यंग्य उपन्यास हैं जिनमें स्तरीय रचनाओं की संख्या तो उँगलियों के पोरों पर गिने जाने लायक है। यह स्थिति तब है कि जब पहला व्यंग्य उपन्यास सौ साल से भी पहले प्रकाशित हो चुका है। भगवानदास बी. ए. के 1905 में प्रकाशित व्यंग्य उपन्यास ‘उर्दू बेगम’ ने व्यंग्य की किशोरावस्था में ही इस उपविधा के फलने-फूलने के संकेत दिये थे। साथ ही उसने गद्य व्यंग्य के लेखकों के सक्षम इस परम्परा को आगे बढ़ाने की चुनौती प्रस्तुत भी थी। पर व्यंग्यकारों के एक बड़े वर्ग ने इस चुनौती से बचने की ही कोशिश अधिक की। इसके पीछे के कारणों का विश्लेषण किया जाये तो हम पाते हैं कि अपनी शक्तियों और सीमाओं के आकलन, कथ्यानुरूप व्यंग्य माध्यम चुनने की सीमा, आत्मतोष और सबसे बढ़कर विस्तार से बचने की प्रवृत्ति आदि कारकों ने हिन्दी को व्यंग्य उपन्यासों की दृष्टि से समृद्ध नहीं होने दिया। वैसे भी व्यंग्य उपन्यास का लेखन बेहद जटिल प्रक्रिया है। सामान्य गद्य की तुलना में जहाँ व्यंग्य अतिरिक्त भाषाई अनुशासन और विशिष्ट शैली की माँग करता है, वहीं व्यंग्य उपन्यास, इस कड़ी की जटिलतम व्यवस्था होने के कारण, कथ्य के निर्वाह से लेकर शैलीगत चातुर्य और साथ ही हास्य, वक्रोक्ति, वाग्वैदग्ध्य, ताना, कटुक्ति जैसी भाषिक शक्तियों का बृहद् स्तर पर सन्तुलन अत्यन्त श्रमसाध्य कार्य है जिससे अधिकांश व्यंग्य लेखक बचने का ही प्रयास करते हैं। यह कार्य उच्च व्यंग्य कौशल की माँग करता है जिसमें बिरले ही सफल हो पाते हैं। यही कारण है कि कई बार उपन्यासोचित कथ्य को भी लेखक व्यंग्य कथा में निपटा देते हैं। डॉ- ज्ञान चतुर्वेदी ने अपने चर्चित व्यंग्य उपन्यास ‘बारामासी’ की भूमिका में लिखा भी है कि ‘‘व्यंग्य उपन्यास लिखना रस्सी पर नट की तरह चलने के समान है जहाँ जरा सी भी शिथिलता आपको गिरा सकती है मतलब कृति के प्रभाव को कमजोर कर सकती है।’’ सही बात है प्रसंग वक्रता, शैली और कथ्य के निर्वाह का आद्योपान्त सन्तुलन इस उपविधा को जटिलतम की संज्ञा देता है। यही कारण है कि हिन्दी में व्यंग्य उपन्यासों की बेहद कमी है। इस सबके बावजूद कुछ प्रतिभाशाली व्यंग्यकारों ने इन जटिल चुनौतियों को स्वीकार करते हुए कुछ श्रेष्ठ व्यंग्य उपन्यासों का सृजन किया है जिनमें नरेन्द्र कोहली भी एक हैं। डॉ- नरेन्द्र कोहली की सर्वाधिक ख्याति उनके पौराणिक उपन्यासों के लेखक होने के कारण है। रामकथा और कृष्णकथा के अतिरिक्त उन्होंने स्वामी विवेकानन्द जैसे युगपुरुषों के जीवन चरित को भी अपनी औपन्यासिक कृतियों का आधार बनाया है। युगबोध, आदर्शों की स्थापना, मिथकों का मानवीय दृष्टि से प्रस्तुतीकरण, पौराणिक चरित्रों का आधुनिक दृष्टि से मानवीकरण और उनके कार्य-कलापों की ऐसी प्रस्तुति कि नयी पीढ़ी को उनसे प्रेरणा मिल सके, ऐसे सभी उद्देश्यों को लेकर आयी उनकी कृतियों ने अपना एक विशाल पाठक वर्ग तैयार किया हैए जो उनकी औपन्यासिक कृतियों को खोज-खोजकर पढ़ता है। कई दशकों की उनकी इस लेखक तपस्या ने उन्हें आज हिन्दी के सर्वाधिक पढ़े जाने वाले साहित्यिक लेखक की उपाधि प्रदान की है जो किसी के लिए भी ईर्ष्या का विषय हो सकती है। इस सबके अलावा भी नरेन्द्र कोहली ने विपुल मात्रा में साहित्य रचा है। जहाँ तक मुझे याद है कविता को छोड़कर हर विधा में उन्होंने लिखा है। कहानी, उपन्यास, निबन्ध, आलोचना, आत्मकथा, जीवनी, संस्मरण, रेखाचित्र शायद ही उनकी कलम से कुछ छूटा होगा। सैकड़ों चर्चित कृतियों के रचनाकार नरेन्द्र कोहली ने व्यंग्य साहित्य को समृद्ध करने में भी अपना विशिष्ट योगदान दिया है। इस बात की गवाही उनके दर्जनों व्यंग्य संग्रह, ‘शम्बूक की हत्या’ जैसे व्यंग्य नाटक और पाँच एब्सर्ड उपन्यास जैसी रचनाएँ बखूबी देती हैं। विशेषकर पाँच एब्सर्ड उपन्यास का एक खंड ‘अस्पताल’ (जो अपने आप में एक र्पूण उपन्यास है) तो व्यंग्य साहित्य की अद्भुत रचना है। मैंने जितना देशी-विदेशी व्यंग्य साहित्य पढ़ा हैए उसमें ‘अस्पताल’ कारुणिक व्यंग्य कृति के रूप में अप्रतिम है। सरकारी अस्पताल की अव्यवस्थाओं, वहाँ के कर्मचारियों के अमानवीय व्यवहार और अस्पताल में भर्ती मरीजों और उनके तीमारदारों की विवशताओं को उकेरती यह व्यंग्य कृति ऐेसे व्यंग्य की सृष्टि करती है जो अन्तस को अन्दर तक बींध डालता है। मेरा मानना है कि ऐसी अद्भुत कारुणिक व्यंग्य कृति किसी अन्य भाषा में अभी तक उपलब्ध नहीं है। इस कृति के लिए व्यंग्य साहित्य नरेन्द्र कोहली का सदैव ऋणी रहेगा। अब बात इस व्यंग्य उपन्यास ‘देश के हित में’ की। सच कहूँ तो देश के हित में पारम्परिक व्यंग्य उपन्यासों से बहुत अलग है, कथ्य के स्तर पर और उसके प्रस्तुतीकरण के स्तर पर भी। यह कृति अपनी एब्सर्डिटी के कारण‘पाँच एब्सर्ड उपन्यास’ का एक विस्तार होने की प्रतीति देती है। सीधी-सादी और कभी-कभी अस्वाभाविक स्थितियों/घटनाक्रमों को दर्शाती इस रचना में बहुत ही सूक्ष्म प्रतीक छिपे है, एक एब्सर्डिटी छिपी है जो सजग पाठक ही पकड़ सकते हैं अन्यथा सामान्य पाठक तो इसकी चुटीली भाषाए प्रसंगवक्रता और शिल्प के अनूठे प्रयोगों पर ही वाह-वाह करके सिमट सकता है। यह कृति स्वयं को एक खोजी दृष्टि से पढ़ने की माँग करती है ताकि अस्वाभाविक और अतिनाटकीयता से भरपूर घटनाक्रमों में छिपे प्रतीकों कोए विसंगतियों कोए उन पर बेहद सावधानी भरे कौशल से किये गये सूक्ष्म प्रहारों को पहचान सके, उनमें छिपे संकेतों को समझ सके। ऐसा नहीं है कि पूरी कृति में परोक्षता का ही वर्चस्व है, कई स्थानों पर लेखक ने अपरोक्ष प्रहारात्मकता को भी प्रश्रय दिया है ताकि कृति गम्भीर पाठकों के साथ सामान्य पाठकों को भी लुभा सके। अब इस कृति की कथावस्तु पर। ललित खन्ना एक सरकारी दफ्तर में बड़ा बाबू है। उसकी पत्नी बीमा कराने का कार्य करती है। उपन्यास पति-पत्नी की हल्की-फुल्की चुहलबाजियों से शुरू होता है। फिर उसके दफ्तर में रामलुभाया और उसकी पत्नी दमयन्ती का प्रवेश होता है। रामलुभाया अपनी भविष्य निधि का नॉमिनी अपनी पत्नी को बनाना चाहता है। सरकारी खानापूरियों के मकड़जाल में वह बुरी तरह उलझ जाता है, जहाँ से ‘बात में से बात, बात में से बात, की तर्ज पर एक के बाद एक उलझाव बढ़ते जाते हैं और व्यंग्य की बेल लहलहाने लगती है। पति-पत्नी के मधुर सम्बन्धों में भविष्य की यह निधि ऐसी गाँठ डाल देती है जो उपन्यास के अन्त तक नहीं खुलने पाती। नाटकीयता से भरपूर ये प्रसंग पाठक को हँसने पर तो विवश करेंगे ही साथ ही उसे सोचने का मसाला भी देंगे। हँसाते-हँसाते तीखी चुटकी काटने की यह शैली कमोबेशी कृति के साथ-साथ चलती रहती है। अतिनाटकीयता और अस्वाभाविक प्रसंगों तथा शाब्दिक उलझावों के बीच लेखक, व्यंग्य के सजग पाठकों के लिए कुछ संकेत छोड़ता चलता है, जो पाठक उन संकेतों की पहचान कर लेंगे, उनके लिए यह कृति अविस्मरणीय सिद्ध होगी। सरकारी नियम-कानूनों की पेचीदगियाँ रामलुभाया और दमयन्ती के बीच तो शंका के बीज बोती ही हैं, बड़े बाबू ललित खन्ना और उनकी प्रेयसी पत्नी माया को भी प्रभावित किये बगैर नहीं छोड़तीं। अनदेखे भविष्य के प्रति अनावश्यक रूप से जागरूक होने के कारण सुखी दाम्पत्य जीवन की किताब के पन्ने खुलकर बिखरने लगते हैं। संवादों के माध्यम से बिखरता स्वार्थ कब व्यंग्य की शक्ल में परिवर्तित हो जाता है, पता ही नहीं चलता। यह लेखक के व्यंग्य कौशल की एक बड़ी विजय है। परोक्ष और सूक्ष्म व्यंग्य को साधना अपने आप में एक दुष्कर कार्य है जिसे नरेन्द्र कोहली ने बड़े यत्न से निभाया है। धीरे-धीरे कृति आगे बढ़ती है, इसी के साथ ही नाटकीय और असहज स्थितियों की भी गति बढ़ती है। रामलुभाया और दमयन्ती के घर प्रॉपर्टी डीलर का आगमन, उसकी पत्नी की चेतावनी, माया का अनापेक्षित प्रवेश और इस सबके बीच व्यंग्य की महीन किन्तु तीक्ष्ण धार, संकेतात्मकता व्यंग्य को नये क्षितिज प्रदान करती है। इस पूरे प्रसंग में लेखक ने प्रॉपर्टी के नाम पर किये जा रहे फर्जीवाड़े, षड्यंत्रों, अमानवीयता पर गहरी व्यंग्यात्मक चोट की है। उपन्यास में बीच-बीच में कुछ ऐसे प्रसंग भी आते हैं जो सामाजिक और पारिवारिक जीवन की विसंगतियों को उद्घाटित करते ही हैं। विद्रूपों की गहराई में जाकर जाँच भी करते हैं और फिर उन पर संकेतों का सहारा लेकर प्रहार करते हैं। ललित खन्ना के पड़ोसी के घर की चोरी और उसमें पुलिस की भूमिका का प्रसंग विशेष रूप से बेहतर बन पड़ा है जहाँ पुलिसिया तंत्र की मनमानी, उसके भ्रष्टाचार और अमानवीयता पर बेहद सलीके से व्यंग्य प्रहार किये गये हैंए ऐसे प्रहार कि पाठक तिलमिला उठता है। थानेदार का चोर और रेपिस्ट को समर्थन देना पुलिस तंत्र की कार्यकुशलता और कार्य प्रविधि को ही प्रश्नों के घे रे में ला खड़ा करता है। इस व्यंग्य कृति के कतिपय प्रसंग विशेष रूप से चर्चा के योग्य हैं जहाँ व्यंग्यकार एब्सर्डिटी से अलग हटकर भी व्यंग्य की, अपरोक्ष व्यंग्य की सृष्टि करता है। विशेषकर सरकारी कार्यालयों में राजभाषा हिन्दी के प्रयोग को लेकर लेखक ने जिस तरह व्यंग्य की सृष्टि की है, वह प्रशंसा के योग्य है। संकेतात्मकता से अलग, जहाँ बेहद सहज ढंग से व्यंग्य की धारा बहती है। विशेष रूप से कार्यालयों में हिन्दी प्रयोग की वास्तविकता पर यह वाक्य देखने योग्य है: ‘’अपने देश में हिन्दी में लिखा चेक भी कहीं असली हो सकता है’’ या ’’यह साला हिन्दी चेक दे रहा है, जहाँ के लोग मरते हुए भी चिट्ठी अंग्रेजी में लिखते हैं। वहाँ यह हिन्दी में चेक लिख रहा है। इस काग़ज़ से तो कोई अपना मल भी नहीं पोंछेगा।‘’ ऐसे ही कुछ और वाक्य उपन्यास में जगह-जगह दृष्टिगोचर होते हैं जो लेखक के व्यंग्य कौशल पर वाह-वाह करने को विवश कर देते हैं। इनमें से कुछ उदाहरण देने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। रामलुभाया के केस को देखने के बाद माया का यह बयान देखने योग्य है। जहाँ उसका पति प्रेम भविष्य निधि के पैसों के सामने धुँधला जाता है और उसकी धुँधलाहट व्यंग्य को चमकीला बना देती है। अपने प्रोविडेंट फंड के कागज़ निकालो, उनको निरस्त करो। नया फार्म भरो। उसमें लिखो कि तलाक और पुनर्विवाह की स्थिति में भी आपका प्रोविडेंट फंड मुझे ही मिलेगा। ऐसे ही जब कथाक्रम आगे बढ़ता है। नाटकीय स्थितियाँ जवान होने लगती हैं। तभी एक उत्साही रिपोर्टर ललित खन्ना के मरने की खबर अखबार में छाप देता है। सरकारी कूढ़ मगज़ता सर उठाने लगती है, लकीर के फकीर सक्रिय हो जाते हैं। फाइलें निरर्थक शब्दों का बोझ ढोने लगती हैं। इन सबके बीच में एक तटस्थ, किन्तु तेजाबी व्यंग्य की धारा बहने लगती है। विशेषकर उन परिस्थितियों में जब ललित खन्ना अपने जीवित होने के प्रमाण देने के प्रयास करता है, पर चूँकि फाइलों की नोटिंग में उसकी मौत का इन्दराज हो चुका है, सो कोई उसकी बात नहीं मानता। उधर माया उसके प्रोविडेंट फंड को प्राप्त करने की जुगत भिड़ाती है। प्रसंग वक्रता और वक्रोक्ति से भरपूर इन प्रसंगों में व्यंग्य की धार लगातार पैनी होती जाती है और तब तो जैसे उसे अपना उत्कर्ष मिल जाता है जब ललित खन्ना अपने कार्यालय में जाकर अपने जीवित होने की घोषणा करता है पर किसी के न मानने पर खुद को मारने की बात करता है जिसके लिए पुलिस उसे प्रताड़ित करती है। उसे आत्महत्या करने की कोशिश के अपराध में हवालात में रखने की बात करती है तो उसके मुँह से फूटे ये संवाद व्यंग्य उपन्यास को जैसे अपनी मंजिल ही दे देते है: ’’आत्महत्या तो तब होगी, जब मैं जीवित होऊँगा। मेरा मंत्रालय और कार्यालय मुझे जीवित नहीं मानते। ऐसे में आप किसी शव की अन्त्येष्टि को रोक नहीं सकते। मैं तो प्रेत हूँ। मुझे अपना चौथा कराने का पूरा हक़ है।‘’ सही मायनों में डॉ- नरेन्द्र कोहली की कलम से निकली यह औपन्यासिक कृति प्रयोगधर्मिता के नये आयाम स्थापित करती है। कथ्य और शिल्प दोनों ही स्तरों पर किये गये नये प्रयोगों के लिए इसे विशेष रूप से याद रखा जायेगा। कृति में नाटकीय और अस्वाभाविक घटनाक्रमों के बीच में पारिवारिक, सामाजिक, प्रशासनिक आदि अनेक विसंगतियों की पड़ताल चलती रहती है। बहुत गहराई में जाकर उनके उत्स खोजे जाते हैं और फिर शैलीय उपकरणों के अभिनव प्रयोगों द्वारा उनके मर्म पर प्रहार होता है। यह बात दीगर है कि यह प्रहारात्मकता कहीं प्रत्यक्ष है तो कहीं संकेतों के माध्यम से। संकेतों को समझने के लिए पाठक का गम्भीर और सजग होना जरूरी है। जहाँ वह इन संकेतों को बूझ लेता है, वहाँ उसे महीन बुनावट के व्यंग्य की एक अलग छटा मिलती है जो उसे चमत्कृत कर सकती है। यही संकेतात्मकता और शिल्प संयोजन इस कृति को वैशिष्ट्य प्रदान करता है। ‘देश के हित में’ अपने समग्र रूप में एक प्रौढ़ रचना है जो लेखक के व्यंग्य कौशल की बानगी को करीने से प्रस्तुत करती है। इसकी भाषा पात्रों के व्यक्तित्वों, उनके कार्यों के अनुरूप बुनी गयी है, पात्रों के हिसाब से इसकी भाषा बदलती जाती है जिसमें अंग्रेजी, तत्सम, पंजाबी और उर्दू के शब्द सुविधा और सहजता के अनुसार लिए गये हैं। शैलीय उपकरणों में वक्रोक्ति और वाग्वैदग्ध्य का ठाठ देखने को मिलता है। नाटकीयता इसकी शक्ति भी है और कहीं-कहीं कृति के प्रभाव को सीमित करने वाली भी। अधिकांशतः लेखक ने संवादों के माध्यम से व्यंग्य को अभिव्यक्ति दी है जिसके कारण अपरोक्ष व्यंग्य को समझने में सहजता आयी है। जहाँ संवाद नहीं है, वहाँ प्रसंग वक्रता के माध्यम से व्यंग्य की सृष्टि हुई है। सच तो यह है कि औपन्यासिक सूत्रों का सन्तुलन बनाये रखते हुए इतने बड़े कैनवस पर व्यंग्य का निर्वाह बेहद जटिल कार्य है। उस पर यदि आप प्रयोगधर्मिता को शिल्प और कथ्य दोनों ही स्तरों पर बनाये रखें, संकेतात्मकता और एब्सर्डिटी को भी साधें और उसके बाद भी आप अगर कृति की पठनीयता को बचाये रखें तो यह एक चमत्कार ही कहा जा सकता है। यह चमत्कार नरेन्द्र कोहली के व्यंग्यकार ने किया है जिसके लिए वह निस्सन्देह बधाई के पात्र हैं। ‘देश के हित में’ जैसी कृतियाँ हिन्दी ही नहीं अन्य भाषाओं में भी दुर्लभ हैं। हिन्दी व्यंग्य के पाठकों को एब्सर्डिटी से परिचित कराने का श्रेय नरेन्द्र कोहली को ही जाता है। ‘पाँच एब्सर्ड उपन्यास’ और अब इसके बाद ‘देश के हित में’ इसके स्पष्ट उदाहरण हैं। मुझे विश्वास है कि नरेन्द्र कोहली के व्यंग्य के प्रशंसकों को यह व्यंग्य औपन्यासिक कृति जरूर आकर्षित करेगी। जहाँ सामान्य पाठक इसकी नाटकीयता, वाग्वैदग्ध्य और प्रसंग वक्रता को पसन्द करेंगे, वहीं गम्भीर पाठक इन सबके साथ इसमें छिपे संकेतों की पहचान करके एक अनूठे व्यंग्य से रूबरू होने का आनन्द लेगा। इन्हीं शब्दों के साथ मैं इस व्यंग्य उपन्यास के पाठकों के बीच लोकप्रिय होने की कामना करता हूँ।
|