Brahmin Ki Beti By Sharatchandra Chattopadhyay ब्राह्मण की बेटी मुहल्ले भर घूमकर तीसरे पहर रासमणि घर लौट रही थीं। आगे-आगे उनकी पोती चल रही थी जिसकी उम्र कोई दस बारह साल की थी। गाँव का सँकरा रास्ता-जिसकी बगल की खूँटी में बँधा हुआ बकरी का बच्चा एक किनारे पड़ा हुआ सो रहा था। उस पर नजर पड़ते ही पोती को लक्ष्य कर वे चिल्ला पड़ीं, अरी छोकरी कही रस्सी मत लाँघ जाना ! सामने रस्सी मत...लाँघ गई क्या ? हरामजादी, आसमान में देखती हुई चलती है। आँख से दिखलाई नहीं पड़ा कि सामने बकरी बँधी है ?’’ पोती ने सहज भाव से कहा-‘बकरी तो सो रही है दादी !’ -सो रही है तो क्या दोष नहीं लगा ? आज मंगलवार के दिन तू बेखटके रस्सी लाँघ गई ?’ -‘तो इससे क्या हुआ दादी ?’ -‘इससे क्या होता है ! मुँहजली ब्राह्मण के घर की इतनी बड़ी छोकरी, तुझे इतना भी नहीं मालूम कि बकरी की रस्सी नहीं लाँघनी चाहिए ! और पूछती है, इससे क्या होता है ! इन बदमाश औरत मर्दों के मारे तो रास्ता चलना मुश्किल हो गया है। मंगलवार की अशुभ घड़ी में, लड़की रस्सी लाँघ गई ! मैं पूछती हूँ, क्यों, किस मतलब से यह बकरी रास्ते पर बाँधी गई ? उनके घर क्या लड़के-लड़कियाँ नहीं हैं ? उनका क्या कभी कुछ बुरा भला नहीं हो सकता ?’