चाणक्य नीति - आचार्य विष्णुगुप्त Edi:अश्विनी पाराशर
आचार्य विष्णुगुप्त (चाणक्य) द्वारा प्रणीत चाणक्य नीति का मुख्य विषय मानव मात्र को जीवन के प्रत्येक पहलू की व्यावहारिक शिक्षा देना है। इसमें मुख्य रूप से धर्म, संस्कृति, न्याय, शांति, सुशिक्षा एवं सर्वतोन्मुखी मानव जीवन की प्रगति की झाँकियां प्रस्तुत की गई हैं। आचार्य चाणक्य के नीतिपरक इस महत्वपूर्ण ग्रंथ में जीवन-सिद्धान्त और जीवन-व्यवहार तथा आदर्श और यथार्थ का बड़ा सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है। जीवन की रीति-नीति सम्बन्धी बातों का जैसा अदुभुत और व्यावहारिक चित्रण यहाँ मिलता है अन्यत्र दुर्लभ है। इसीलिए यह ग्रन्थ पूरे विश्व में समादृत है।
प्रस्तुत हैं कुछ उद्धहरण-
लक्ष्मी, प्राण, जीवन, शरीर सब कुछ चलायमान है। केवल धर्म ही स्थिर है।
एक गुणवान पुत्र सैंकड़ों मूर्ख पुत्रों से अच्छा है। एक ही चन्द्रमा अन्धकार को नष्ट कर देता है, किन्तु हजारों तारे ऐसा नहीं कर सकते।
माँ से बढ़कर कोई देवता नहीं है।
पिता का सबसे बड़ा कर्तव्य है कि पुत्र को अच्छी से अच्छी शिक्षा दे। दुष्ट के सारे शरीर में विष होता है।
दुष्टों तथा काँटों को या तो जूतों से कुचल दो या उनके रास्ते से ही हट जाओ।
जिसके पास धन है, उसके अनेक मित्र, भाई बन्धु और रिश्तेदार होते हैं। अन्न, जल तथा सुभाषित ही पृथ्वी के तीन रत्न हैं। मूर्खों ने व्यर्थ ही पत्थर के टुकड़े को रत्न का नाम दिया है। सोने में सुगन्ध, गन्ने में फल और चन्दन में फूल नहीं होते। विद्वान धनी नहीं होता और राजा दीर्घजीवी नहीं होते।
समान स्तर वालों से मित्रता शोभा देती है।
कोयल का रूप उसका स्वर है। पतिव्रता होना ही स्त्रियों की सुन्दरता है।
चाणक्य: एक संक्षिप्त परिचय
प्राचीन भारतीय संस्कृत वांगमय के इतिहास में आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य अपने गुणों से मंडित, राजनीति विशारद, आचार-विचार के मर्मज्ञ, कूटनीति में सिद्धहस्त एवं प्रवीण रूप में ख्यातनाम हैं। उन्होंने नन्द वंश को समूल नष्ट कर उसके स्थान पर अपने सुयोग्य एवं मेधावी वीर शिष्य चन्द्रगुप्त मौर्य को शासक पद पर सिंहासनारूढ़ करके अपनी जिस विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया उससे समस्त विश्व परिचित है। मौर्यवंश की स्थापना आचार्य चाणक्य की एक महती उपलब्धि है। यह वह समय था जब मौर्यकाल के प्रथम सिंहासनारूढ़ चंद्रगुप्त मौर्य शासक थे। उस समय चाणक्य राजनीति गुरू थे। आज भी कुशल राजनीति विशारद को चाणक्य की संज्ञा दी जाती है। चाणक्य की संज्ञा दी जाती है। चाणक्य ने संगठित, संपूर्ण आर्यावर्त का स्वप्न देखा था तदनुरूप उन्होंने सफल प्रयास किया था। चाणक्य अनोखे, अद्भुत निराले, ऐसे कुशल राजनीतिज्ञ थे कि उन्होंने मगध देश के नंद राजाओं की राजसत्ता का सर्वनाश करके ‘मौर्य राज्य’ की स्थापना की थी। चाणक्य का जन्म का नाम विष्णुगुप्त था और चणक नामक आचार्य के पुत्र होने के कारण इनका नाम चाणक्य पड़ा। कुछ लोगों का मत है कि अत्यंत कुशाग्र बुद्धि होने के कारण वह ‘चाणक्य’ कहलाए। कुटिल राजनीति विशारद होने के कारण इन्हें कौटिल्य नाम से संबोधित किया गया। पर संभवत: यह इनके गोत्र का नाम रहा हो किन्तु अनेक विद्वानों के मतानुसार कुटिल नीति के निर्माता होने के कारण इनका नाम कौटिल्य पड़ा। म.म. गणपति शास्त्री ने ‘कुटिल’ गोत्रोत्पन्न पुमान् कौटिल्य : इस व्युत्पत्ति के अनुसार इन्हें कौटिल्य गोत्र का मानने पर बल दिया है। आप चंद्रगुप्त मौर्य के महामंत्री, गुरु, हितैषी तथा राज्य के संस्थापक थे। चंद्रगुप्त मौर्य को राजा पद पर प्रतिष्ठित करने का कार्य इन्हीं के बुद्धि-कौशल का परिणाम था।
चाणक्य के जन्म-स्थान के बारे में इतिहास मौन है। परंतु उनकी शिक्षा-दीक्षा तक्षशिला विश्वविद्यालय में हुई थी। वह स्वभाव से अभिमानी, चारित्रिक एवं विषय-दोषों से रहित स्वरूप से कुरूप, बुद्धि से तीक्ष्ण, इरादे पक्के, प्रतिभा धनी, युगद्रष्टा एवं युगस्रष्टा। जन्म से पाटलिपुत्र के रहनेवाले चाणक्य के बुद्धिबल का पूरा विकास तक्षशिला के आचार्य के संरक्षण में हुआ। अपने प्रौढ़ ज्ञान के प्रभाव से वहाँ के विद्वानों को प्रसन्न कर चाणक्य राजनीति का प्राध्यापक बना। देश की दुर्व्यवस्था को देखकर उसका हृदय द्रवित हो उठा। इसके लिए उसने विस्तृत कार्यक्रम बनाकर देश को एक सूत्र में बाँधने का संकल्प किया और इसमें उसे सफलता भी मिली।
चाणक्य के जीवन का उद्देश्य केवल ‘बुद्धिर्यस्य बलं तस्य’ ही था। इसीलिए चाणक्य को अपनी बुद्धि एवं पुरुषार्थ पर पूरा भरोसा था। वह ‘दैवाधीन जगत्सर्वं’ सिद्धान्त को भ्रम मानता था।
चाणक्य और चंद्रगुप्त मौर्य का समय एक ही है-325 ई.पू. मौर्य सम्राट् चंद्रगुप्त का समय था, यही समय चाणक्य का भी है। चाणक्य का निवास स्थान शहर से बाहर पर्णकुटी थी जिसे देखकर चीन के ऐतिहासिक-यात्री फाह्यान ने कहा था-‘‘इतने विशाल देश का प्रधानमंत्री ऐसी कुटिया में रहता है !’’ तब उत्तर था चाणक्य का-‘‘जहाँ का प्रधानमंत्री साधारण कुटिया में रहता है वहाँ के निवासी भव्य भवनों में निवास किया करते हैं और जिस देश का प्रधानमंत्री राज प्रासादों में रहता है वहां की सामान्य जनता झोपड़ियों में रहती है।’’
चाणक्य की झोंपड़ी में एक ओर गोबर के उपलों को तोड़ने के लिए एक पत्थर पड़ा रहता था, दूसरी ओर शिष्यों द्वारा लायी हुई कुशा का ढेर लगा रहता था। छत पर समिधाएँ सूखने के लिए डाली हुई थीं, जिसके भार से छत नीचे झुक गयी थी। ऐसी जीर्ण-शीर्ण कुटिया चाणक्य की निवास-स्थली थी।
आह ! वह देश महान् क्यों न होगा जिसका प्रधानमंत्री इतना ईमानदार, जागरूक, चरित्र का धनी व कर्तव्यपरायण हो। इन भावों को देखकर लोग दंग रह जाते हैं। हमारे मन रूपी वीणा के समस्त संवेदनशील तार इस दृश्य को देखकर एक साथ झंकृत हो उठते हैं। उन तारों से ऐसी करुणा की रागिनी फूटती है कि चाणक्य की संपूर्ण राजनीति की उच्छृंखलता उसी में धीरे-धीरे विलीन हो जाती है। उसके ज्योतिष्चक्र के सामने आँखें मींचकर चाणक्य को त्यागी एवं तपस्वी के रूप में देखकर सिर झुक जाता है।
2500 वर्ष ई.पूर्व चणक के पुत्र विष्णुगुप्त ने भारतीय राजनयिकों को राजनीति की शिक्षा देने के लिए अर्थशास्त्र, लघु चाणक्य, वृद्ध चाणक्य, चाणक्य-नीति शास्त्र आदि ग्रंथों के साथ व्याख्यायमान सूत्रों का निर्माण किया था।
संस्कृत-साहित्य में नीतिपरक ग्रन्थों की कोटि में चाणक्य नीति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें सूत्रात्मक शैली में जीवन को सुखमय एवं सफल-सम्पन्न बनाने के लिए उपयोगी अनेक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। चाणक्य के अनुसार आदर्श राज्य संस्था वही है जिसकी योजनाएं प्रजा को उसके भूमि, धन-धान्यादि पाते रहने के मूलाधिकार से वंचित कर देनेवाली न हों, उसे लम्बी-चौड़ी योजनाओं के नाम से कर-भार से आक्रांत न कर डालें। राष्ट्रोद्धारक योजनाएं राजकीय व्ययों में से बचत करके ही चलाई जानी चाहिए। राजा का ग्राह्य भाग देकर बचे प्रजा के टुकड़ों के भरोसे पर लंबी-चौड़ी योजना छेड़ बैठना प्रजा का उत्पीड़न है।
चाणक्य का साहित्य समाज में शांति, न्याय, सुशिक्षा, सर्वतोन्मुखी प्रगति सिखानेवाला ज्ञान-भंडार है। राजनीतिक शिक्षा का यह दायित्व है कि वह मानव समाज को राज्य संस्थापन, संचालन, राष्ट्र-संरक्षण-तीनों काम सिखाए।
दुर्भाग्य है भारत का कि चाणक्य के ज्ञान की उपेक्षा करके देशी-विदेशी शत्रुओं को आक्रमण करने का निमंत्रण देकर अपने को शत्रुओं का निरूपाय आखेट बनानेवाली आसुरी शिक्षा को अपना लिया है। नैतिक-शिक्षा, धर्म-शिक्षा का लोप हो गया है। चरित्र-निर्माण को बहिष्कृत कर दिया है। मात्र लिपिक (क्लर्क) पैदा करनेवाली, सिद्धांतहीन, पेट-पालन की शिक्षा रह गई है। समाज धीरे-धीरे आसुरी रूप लेता जा रहा है। अर्थ-दास सम्मान या आत्मगौरव की उपेक्षा करता है। स्वाभिमान का जनाजा निकाला जा रहा है।
आज के स्वार्थपूरित, अज्ञानांधकार में डूबे शुद्ध स्वार्थी राजनीतिक परिदृश्य में मात्र चाणक्य का ज्ञानामृत ही भारत का पथ-प्रदर्शक बनने की क्षमता रखता है। वही हमें राजनीतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक मुक्ति-मार्ग दिखा सकता है। आज की सदोष राष्ट्रीय परिस्थिति इस वर्तमान कुशिक्षा के कारण है। राष्ट्रीय भावना, राष्ट्रहित तथा मनु के आदर्श आज लोप हो चुके हैं। अहंकारी विद्या का ही बोलबाला है। सांस्कृतिक स्वरूप ध्वंस हो चुका है। निष्काम सेवा-भाव का दिवाला निकल गया है। प्रभुता लोभी नेतापन की मदिरा ने बौरा दिया है। चाणक्य की राजनीतिक चिंता-धारा को समाविष्ट करके ही भारत का उद्धार हो सकता है। इसके अध्ययन-पारायण से राजनीति की समझ के विकास के साथ-साथ व्यक्ति में सच्चरित्र सदाचारी, व्यवहार-कुशल एवं धर्मनिष्ठ और कर्मशील मानव के समुचित विकास की पर्याप्त संभावनाएं हैं। इसीलिए यह नीति-पाठ आज भी प्रांसगिक है।
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